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पं. दीनदयाल उपाध्याय जीवन परिचय
Pt. Deendayal Upadhyay

जन्म 25 सितम्बर, 1916 - अवसान: 11 फरवरी, 1968

स्वर्ण; अग्नि में तपकर कुंदन बनता है अर्थात स्वर्ण तपकर ही उस आकार में ढलता है जिसे धारण करने वाले के व्यक्तित्व में चार चाॅद लग जाते हैं लेकिन स्वर्ण को धारण करने योग्य बनने के लिए पहले अग्नि में तपना पड़ता है।

उसी प्रकार जितने भी महापुरूष हुए हैं, वे भी सरलता से महान् नहीं हुए हैं। उन्होंने अपने जीवन को जिन्दगी की भटटी में झोंक दिया, तब वे महान् व्यक्ति कहलाए और लोगों ने उनके कार्यो, उनके आदर्शो को अपनाया। अर्थात महान त्याग करके महान बना जाता है। महानता कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसे बाजार से खरीदा जाए और महान बना जाए। इन्हीं महान पुरूषों की श्रृंखला में एक महान पुरूष थे - ‘‘पं. दीनदयाल उपाध्याय।’’

जन्म -

पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म उनके नाना पंडित चुन्नीलाल जी के यहाॅ राजस्थान के धनकिया नामक ग्राम में दिनांक 25 सितम्बर 1916 को हुआ था।

परिवारिक पृष्टभूमि -

पं. चुन्नीलाल शुक्ल राजस्थान के धनकिया नामक ग्राम में रहते थे जो जयपुर-अजमेर रेलमार्ग पर बसा हुआ एक छोटा-सा ग्राम है। पं. चुन्नीलाल इसी ग्राम के रेल्वे स्टेशन पर स्टेशन मास्टर के रूम में कार्यरत थे। इनके पिता का नाम श्री भगवती प्रसाद उपाध्याय था। वे मथुरा जिले के फराह नामक गाॅव के रहने वाले थे। वे मथुरा में जलेसर मार्ग पर स्थित स्टेशन पर स्टेशन मास्टर थे। इनकी माता का नाम श्रीमति रामप्यारी था। वे धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। दीनदयाल जी के दादा पं. हरिराम अपने समय के प्रकांड ज्योतिषी थे।

दीना और शिव -

पं. दीनदयाल उपाध्याय का पारिवारिक नाम ’’दीना’’ था। बचपन में सभी उन्हे स्नेह से ’’दीना’’ कहकर ही पुकारते थे। दीना के जन्म के लगभग दो वर्ष बाद उनकी माता रामप्यारी ने एक और पुत्र को जन्म दिया। इस बालक का नाम ’’शिवदयाल’’ रखा गया तथा पारिवारिक नाम ’’शिव’’ दिया गया। इस प्रकार दीना अपने परिवार के साथ जीवन के मार्ग पर आगे बढ़ने लगा।

समय का क्रूर प्रहार -

कहते हैं कि समय बड़ा बलवान होता है। इसके प्रहारों से शक्तिशाली और तेजस्वी व्यक्ति भी बलहीन, आश्रयहीन और तेजहीन होकर नष्ट हो जाता है। केवल उसी का अस्तित्व बचता है जो इसके कठोर प्रहारों को धैर्य, त्याग और शांतभाव से सहन कर ले। इसके परिणाम स्वरूप् वह व्यक्ति यश, विद्वता और सम्मान के उस शिखर पर प्रतिष्ठित होता है, जहाॅ पहुॅचने की केवल कल्पना ही की जा सकती है।

कुछ इसी तरह की विषम परिस्थितियाॅ दीनदयाल जी के सामने भी उपस्थित हुई। समय का पहला क्रूर प्रहार उन्हें तब झेलना पड़ा, जब वे मात्र ढाई वर्ष के थे। नवरात्रि के दिन चल रहे थे। चतुर्थी को इनके पिता पं. भगवती प्रसाद उपाध्याय किसी के घर भोजन करने गए। किंतु वहाॅ काल उनकी प्रतिक्षा कर रहा था। उन्होंने जैसे ही भोजन आरंभ किया, वैसे ही मृत्यु ने उन्हें अपने आगोश में ले लिया। किसी ने उनके भोजन में विष मिला दिया था, जिससे उनकी मृत्यु हो गई।

दीनदयाल एवं शिवदयाल के सिर से पिता का साया उठ गया और वे पितृ-पे्रम से वंचित हो गए। उनकी माता दोनों बच्चों को साथ लेकर अपने पिता के घर आ गई और वहीं रहकर दानों का लालन-पालन करने लगी।

किन्तु काल की क्रूर दृष्टि इनके परिवार पर पड़ चुकी थी। अतृप्त मृत्यु मुख खोलकर भोजन माॅग रही थी। अंततः दीनदयाल पर एक और वज्राघात हुआ। 8 अगस्त, 1924 को इनकी माता रामप्यारी दोनों पुत्रों को छोड़कर ब्रम्हलीन हो गई। उस समय दीनदयाल केवल आठ वर्ष के और शिवदयाल साढ़े छह वर्ष के थे। इस प्रकार दोनों बालक बाल्यकाल में ही माता-पिता के स्नेह से वंचित होकर अनाथ हो गये थे। इनके मामा का स्नेह इन दोनों पर अधिक था, अतः अब वे दोनों मामा की छत्र-छाया में पलने लगें।

काल की क्रीडा का अंतिम चरण अभी शेष था। वह दीनदयाल जी के सभी सांसारिक बंधन तोड़ देना चाहता था। 18 नवम्बर,1934 को छोटे भाई शिवदयाल की ’’निमोनिया’’ से मृत्यु हो गई। अब दीनदयाल जी संसार में अकेले रह गए थे। किंतु ननिहाल के लोगों ने उन्हें अकेला नहीं होने दिया और पूर्ण वात्सल्य भाव से उनका पालन-पोषण किया।

छात्र जीवन एवं शिक्षा -

छीना की माता जी के स्वर्गवास के बाद इनके पालन-पोषण इनके मामा श्री राधारमन शुक्ल ने किया। वे गंगापुर (राजस्थान) स्टेशन पर मालगार्ड के रूप् में कार्यरत थे। दीनदयाल जी यहीं उनके साथ गंगापुर में रहे और उन्होंने अपनी छठीं तक की शिक्षा यहीं पूर्ण की। सातवीं कक्षा में प्रवेश के लिए उन्हें राजस्थान के कोटा शहर में भेज दिया गया। वहाॅ वे छात्रावास में रहे।

डनके चचेरे मामा श्री नारायण शुक्ल रामगढ़ में रहते थे और वे भी वहाॅ स्टेशन मास्टर के पद पर कार्यरत थे, अतः जब दीनदयाल जी ने कक्षा सातवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की तब उन्हें रामगढ़ में अपने चचेरे मामा के यहाॅ आना पड़ा। उन्होंने आठवीं कक्षा में प्रवेश लिया और यहाॅ से आठवीं कक्षा उत्तीर्ण की।

आगे की शिक्षा के लिए राजस्थान के सीकर जिले में जाना पड़ा। यहाॅ उन्होंने ’कल्याण’ हाई स्कूल में नवीं कक्षा में प्रवेश लिया। यहाॅ दसवीं कक्षा में वे सर्वप्रथम आए। यह परीक्षा उन्होंने वर्ष 1935 में राजस्थान बोर्ड से उत्तीर्ण की। इनकी इस प्रतिभा के कारण विद्यालय एवं बोर्ड ने पुरस्कार स्वरूप उन्हे दो स्वर्ण पदक दिए। इतना ही नहीं सीकर के महाराजा ने भी उनकी प्रतिभा के प्रसन्न होकर उन्हें दो सौ पचास रूपये नगद पुरस्कार स्वरूप दिए एवं दस रूपए माहवार की छात्रवृत्ति स्वीकृत कर दी। आगे की शिक्षा के लिए वे पिलानी के बिड़ला काॅलेज में पहॅुचे। वहाॅ उन्हें छात्रावास में रहना पड़ा। यहाॅ भी उन्होंने इंटर की परीक्षा में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया। इस बार भी बोर्ड एवं विद्यालय की ओर से उन्हें दो स्वर्ण पदक प्रदान किए गए। साथ ही सेठ घनश्याम दास बिड़ला ने दो सौ पचास रूपए नगद पुरस्कार और बीस रूपए मासिक छात्रवृत्ति प्रदान की। उनकी लगन और मेहनत उन्हें निरंतर आगे पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करती रही।

स्नातक की पढ़ाई के लिए दीनदयाल जी कानपुर पहॅुचे। यहाॅ उन्होंने कानपुर के सनातन धर्म काॅलेज में बी.ए. करने के लिए प्रवेश लिया। यहाॅ भी वे छात्रावास में रहें।

प्रायः वे पढ़ाई में डूबे रहते थे। जब सभी छात्र नियमानुसार छात्रावास की बत्तियाॅ (लाइट) बंद कर देते थे और सो जाते थे, तब दीनदयाल जी लालटेन जलाकर अध्ययन में लगे रहते थे। तभी उनकी मेहनत रंग लाती थी। कानपुर में बी.ए. की परीक्षा में भी वे सर्वप्रथम आए। उनकी इस उत्कृष्ट प्रतिभा के फलस्वरूप काॅलेज से उन्हें तीस रूपए मासिक छात्रवृत्ति मिलने लगी। वे अपनी शिक्षा इसी छात्रवृत्ति से पूर्ण कर रहे थे।

बी.ए. की शिक्षा पूरी करने के बाद एम.ए. करने के लिए दीनदयाल आगरा पहुॅचे। यहाॅ उन्होंने अंग्रेजी विषय में अध्ययन के लिए आगरा के ’18/5000 सेंट जायन्स कालेज’ में प्रवेश लिया। यहाॅ भी उन्होंने अपनी अनूठी प्रतिभा और लगन का प्रदर्शन किया। वर्ष 1939 में एम.ए.प्रथम वर्ष की परीक्षा में वे सर्वप्रथम आए। अब एम.ए. द्वितीय वर्ष के लिए प्रवेश लिया। अध्ययन प्रारंभ किया। लेकिन यहाॅ उनकी आगे की शिक्षा में व्यवधान उत्पन्न हो गई। उनके मामा श्री नारायण की पुत्री अर्थात् उनकी ममेरी बहन रामदेवी को खराब स्वास्थ्य के चलते आगरा के अस्पताल में स्वास्थ्य लाभ के लिए लाया गया। यहाॅ दीनदयाल ने अपनी जिम्मेदारी का पूर्ण रूप से निभाया और बहन की सेवा में लग गए। लेकिन फिर भी उनकी बहन बच न सकीं और एक दिन उनकी मृत्यु हो गई।

दीनदयाल जी दुःखी हो गए और एम.ए. द्वितीय की परीक्षा नहीं दे सके। लेकिन उन्हें इस बात की प्रसन्नता थी कि उन्होंने अपनी बहन के प्रति पूर्ण निष्ठा से अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह किया। अब उन्होंने प्रयाग के गवर्नमेंट टेªनिंग काॅलेज में प्रवेश लेकर एल.टी.की परीक्षा उत्तीर्ण की।

इस प्रकार पं. दीनदयाल उपाध्याय जी की शिक्षा का क्रम आगे बढ़ता गया। उन्होंने मेहनत में कोई कमी नहीं छोड़ी। जी-जान से मेहनत करते गए। बचपन से ही सिर पर पहाड़ टूटते रहे, कठिनाइयाॅ आती रहीं, लेकिन भाग्य भी उनका साथ देता रहा और वे अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते चले गए। छात्रवृत्ति मिलती रही और इसके बल पर ही शिक्षा का क्रम चलता रहा। दीनदयाल जी में मेधावी छात्र होने के साथ-साथ अपनी नेतृत्व क्षमता के कारण भी प्ऱिसद्ध थे। वे काॅलेज में छात्र होने को निर्देश देते रहते थे। समय-समय पर उन्हें अपने नेतृत्व द्वारा संचालित करते रहते थे। उन्होंने प्रारंभिक से अंत तक की शिक्षा अनेक स्थानों पर जाकर प्राप्त की। इसके लिए उन्हें राजस्थान जो कि अपने पराक्रम के लिए प्रसि़द्ध है वहाॅ पढ़ाई की। और फिर राजस्थान तो उनकी जन्मभूमि भी थी, साहस, पराक्रम उनमें स्वाभाविक तौर पर था। इसी प्रकार कानपुर जो कि क्रांतिकारियों का तीर्थ था, उन्होंने पढ़ाई की और क्रांतिकारी की महक से भी वे अछूते नहीं रह सके। तत्पश्चात् तीर्थराज प्रयाग में शिक्षा के लिए पहुॅचे, वहाॅ भी इन्हें गंगा के पावन तट का सानिध्य प्राप्त हुआ। इस प्रकार दीनदयाल को इतना सभी कुछ समयानुसार प्राप्त होता रहा और वे भी उसे सरलता से प्राप्त करते रहे।

पत्रकारिता एवं साहित्यिक क्षेत्र में -

पं. दीनदयाल उपाध्याय ने पत्रकारिता के क्षेत्र में सम्पादन का कार्य एवं साहित्य लेखन के क्षेत्र में पुस्तकें लिख इस क्षेत्र में भी अपनी प्रतिभा प्रदर्शित की।

वर्ष 1947 में पंडित दीनदयाल जी ने ’’राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड’’ की स्थापना की। इसके अंतर्गत ’’राष्ट्रधर्म’’, ’’पांचजन्य’’ व ’’स्वदेशी’’ नामक पत्र प्रकाशित होते थे। इनमें स्वदेशी दैनिक पत्र था; जबकि पांचजन्य साप्ताहिक तथा राष्ट्रधर्म मासिक प्रकाशित होता था। दीनदयाल जी इनमें से पांचजन्य एवं स्वदेश के संपादन का कार्य स्वयं करते थे। इनके अतिरिक्त राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड में संपादक के रूप में वचनेश त्रिपाठी, महेन्द्र कुलश्रेष्ठ, गिरीश चन्द्र मिश्र, तिलक सिंह परमार, महावीर प्रसाद त्रिपाठ आदि विद्वान भी थे। इनके अतिरिक्त अन्य लोगों में ज्वाला प्रसाद चतुर्वेदी तथा मनमोहन गुप्त प्रबंधक थे। श्री राधेश्याम कपूर प्रकाशन थे। श्री बजरंगी शरण तिवारी एवं पानगी पे्रस व्यवस्थापक थे तथा इस प्रकाशन के प्रबंध निदेशक श्री नानाजी देशमुख थे।

धीरे-धीरे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ख्याति प्राप्त करता जा रहा था और इन पत्रों के माध्यम से देश में संघ का प्रचार-प्रसार और भी तेजी पकड़ता जा रहा था। दूसरी ओर काॅगे्रस सरकार ने संघ पर लगाम लगाने का निर्णय लिया और शासन ने इन समाचार पत्रों प्रतिबंधित कर दिया। लेकिन पं. दीनदयाल जी ने अपनी सूझ-बूझ का परिचय देते हुए कार्य किया। सरकार द्वारा ’पांचजन्य’ पर प्रतिबंध लगाए जाने पर उन्होंने ’हिमालय पत्रिका’ नाम से दूसरा समाचार पत्र प्रकाशित करना प्रारंभ कर दिया। यह समाचार पत्र भी लोकप्रिय हो गया। सरकार ने इसे भी प्रतिबंधित कर दिया। तब उन्होंने ’देशभक्त नाम से प्रकाशन प्रारम्भ कर दिया। सरकार के समझ में नहीं आया कि आखिर क्या किया जाए? वह दीनदयाल जी की कुशाग्र बुद्धि के समक्ष निस्सहाय-सी हो गई। लेकिन दीनदयाल जी को रोक नहीं पाई। अंततः सरकार ने उन्हें पकड़ने की योजना बनाई, किन्तु वह दीनदयाल जी को तब तक नहीं पकड़ पाई जब तक दीनदयाल जी ने स्वयं को न पकड़वा दिया। यह देख राष्ट्रीय स्यवंसेवक संघ ने इसके विरोध में सत्याग्रह किया।

इस विरोध का संचालन दीनदयाल जी के हाथों में था। उन्होंने इसका संचालन शांतिपूर्वक इस प्रकार किया कि सरकार ने कार्यकर्ताओं को कई प्रकार से उत्तेजित करन चाहा लेकिन कोई भी उत्तेजित नहीं हुआ और विरोध शांतिपूर्वक हुआ और दीनदयाल जी ने अपनी नेतृत्व क्षमता की प्रतिभा प्रदर्शित की।

इस प्रकार पं. दीनदयाल उपाध्याय ने पत्रकारिता के क्षेत्र में अपने कदम रखे और इस क्षेत्र में भी नए आयाम स्थापित किए। समाचार पत्रों का सम्पादन किया। उनके माध्यम से लोगों को प्रेरित किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में अनेक महत्वपूर्ण लेख भी लिखे जो समय-समय पर उनके समाचार पत्रों में प्रकाशित होते रहे।

सादा जीवन, उच्च विचार और व्यवहार में सरलता के धनी पंडित दीनदयाल उपाध्याय आजन्म ब्रम्हचारी रहे।

डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की कश्मीर में रहस्यमय मृत्यु के बाद सर्वश्री प्रेमनाथ डोगरा, मौलिचन्द्र शर्मा, बच्छराज व्यास, पीताम्बर दास, डाॅ. रघुवीर, एस.रामाराव, बलराज मधोक आदि ने जनसंघ के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया। दिसम्बर 1967 में जनसंघ के 14वें अधिवेशन के अवसर पर पंडित दीनदयाल उपाध्याय को इसका अध्यक्ष बनाया गया। उनके नेतृत्व में संघ एक नई चेतना के साथ आगे बढ़ने लगा। अटल जी के साथ-राष्ट्रधर्म, पांचजन्य और स्वदेश में उन्होंने कंधे-से-कंधा मिलाकर कार्य किया।

वे बोलते कम थे, सुनते अधिक थे। अतिशयोक्ति और प्रचार में उनकी रुचि नहीं थी। वे समन्वयवादी थे, समझौतावादी थे; किन्तु सिद्धांतो से गिरकर अथवा परिस्थिति से पराजित होकर उन्होंने न समझौता किया, न समन्वय। जनसंघ को नवपथ की ओर अग्रसर कर राजनीति के विशाल प्रांगण में खड़े कर देने का साहस और जीवट केवल दीनदयाल जी में ही था।

इस मुखर और सच्चे राष्ट्रभक्त की लखनऊ से पटना जाते हुए रात्रि के अंधकार में चलती गाड़ी में कू्ररतापूर्वक हत्या कर दी गई। 11 फरवरी 1968 को सभी भारतवासियांे ने यह दुखद समाचार सूना कि पं. दीनदयाल जी का शव मुगलसराय स्टेशन के निकट पाया गया। यह समाचार सुनकर भारत का जनमानस हिल गया। कण-कण अवाक रह गया एवं भारत शोक सागर में डूब गया।